Sunday, May 13, 2012

उम्मीद

जब बेब्बसी से ठिठुरता हैं रूह
 तब उम्मीद की चिंगारी ही ताप्ति हैं रूह को

जब आसूं भी बहने से इंकार कर देता हैं
  तब उम्मीद से सजे सपने ही दिलासा देते हैं तपती आँखों को

जब तन्हाई अपना सा लगने लगता हैं
 तब उम्मीद ही अपनी खिलखिलाहट से दोस्ती कराती हैं

जब दर की जंजीरें ज़िन्दगी को आगे बढ़ने से रोकती हैं
 तब उम्मीद की तेज़ाब उन जंजीरों को पिघला देती हैं

जब खोना ही ज़िन्दाही का सच बन जाता हैं
 तब उम्मीद का तोहफा इस सच को झूठ बना देती हैं

जब शुन्य निगलने लगता हैं रूह को
 तब उम्मीद ही सहारा बनती हैं रूह का

जब सारें रंग काला चादर ओढ़ लेते हैं
 तब उम्मीद की आग उस चादर को जला रंगों से गुफ्तगुं कराती हैं

जब दिन भी रात के अंधेरों में छूप जातें हैं
 तब उम्मीद की किरने ही उन रातों में सूरज उदय करवाती हैं